सब मनुष्य शांति चाहते हैं। अच्चांति कोई नहीं चाहता। शांति केवल अहिंसा से ही संभव है। पर अहिंसा का अर्थ इतना ही नहीं है कि किसी जीव की हत्या न की जाये। दूसरों को पीड़ा न पंहुचाना, उनके अधिकारों का हनन करना भी अहिंसा है। इस अहिंसा की पहले भी आवश्यक थी और आज भी है। पर आज विनाच्चक शस्त्रों के अम्बार लगे हुए हैं। पूरी दूनिया जैसे बारूद के ढेर पर बैठी हुई है। आंतकवाद से बडे-बडे विकसित राष्ट्रों की नींद हराम हो रही है। धार्मिक उन्मादों से प्रेरित क्रुसडे, जोहाद तथा धर्म युद्ध ने मानव जाति को विनाश्य के चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। निहित स्वार्थ कि समूचि मानव जाति भयभीत है। गरीबी एवं अभाव के कारण लोग नारकीय जीवन जीने के लिए विवच्च है। सैनिक छावनियों में लाखों-लाख सैनिक प्रतिदिन युद्धाभ्यास करते हैं। हिंसा की इतनी सूक्ष्म जानकारी और प्रशिक्षण दी जा रही है कि वर्षो तक यह क्रम चलता रहता है। हर वर्ष उसकी पुनारावृति ही नहीं कराई जाती अपितु नई-नई तकनीक खोजी जाती है। नये-नये प्रेक्षापास्त नये-नये टेंक, नये-नये आग्नेयसस्त्र सामने आ रहे है। हिंसा के प्रशिक्षण के लिए प्रचार प्रसार पर मुट्ठी भर निहित स्वार्थी शक्तियों द्वारा अकूत संसाधन लगाये जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में मन में एक विकल्प उठता है कि इतनी प्रशिक्षण दी जाती है तो क्या अहिंसा की प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं है ? निश्चय ही आवश्यक तो है पर सवाल यह है कि उसे पूरा कैसे किया जाये ? क्या केवल धर्मशास्त्रो के पढने मात्र से अहिंसा जीवन में उतर आयेगी ? क्या केवल प्रवचन सुनने मात्र से अहिंसा का जीवन में अवतरण हो जायेगा? नहीं उसके लिए हमें अहिंसा के प्रशिक्षण पर विचार करना होगा। यह सोचना होगा कि हिंसा के क्या कारण हैं तथा कैसे उनका निवारण किया जा सकता है। पहले हम हिंसा के कारणों पर विचार करें। हिंसा दो प्रकार के कारण हैं। एक आंतरिक एवं दूसरा बाहरी। हिंसा के आंतरिक कारण - हिंसा का सबसे बड़ा पोषक कारण है - तनाव। वही आदमी हिंसा करता है तो तनाव से ग्रस्त रहता है। हिंसा का दूसरा पोषक कारण है - रासयनिक असंतुल्न। हिंसा केवल बाहरी कारणों से ही नहीं होती, उसके भीतरी कारण भी होते हैं। हमारी ग्रेथियों में जो रसायन बनते हैं, उन रसायनों में जब असंतुल्न पैदा होता है, हो जाता है, तब व्यक्ति हिंसक बन जाता है। हिंसा का तीसरा पोषक कारण है - नाड़ी तंत्रीय असंतुल्न। नाड़ी तंत्रीय असंतुल्न होते ही आदमी हिंसा पर उतारू हो जाता है। हिंसा का चौथा कारण है - निषेधात्मक दृष्टिकोण। धृणा, ईर्ष्या, भय, कामवासना ये सब निषेधक दृष्टिकोण हैं। उनसे भावतंत्र प्रभावित होता है और मनुष्य हिंसा में प्रवृत हो जाता है। हिंसा का पांचवा पोषक कारण है - चंचलता। मन की चंचलता, वाणी की चंचलता और शरीर की चंचलता। अधिक चंचलता से जैविक रसायनिक, शरीरिक और मनोवैज्ञानिक सभी प्रक्रियाएं बदल जाती हैं और हिंसा को उतेजना मिल जाती है। हिंसा के बाहरी कारण - विकास की मिथ्या अवधारणा असंतुलित समाज व्यवस्था जातीय और रंगभेद की व्यवस्था साम्प्रदायिक कट्टरता आर्थिक अभाव और अतिभाव भौतिकवाद पर आधारित उपभोक्तावाद आदि। हिंसा के उपयुक्त विवेचना से स्पष्ट होता है कि इसकी उत्पति के स्त्रोत यदि भीतर हैं तो बाहर भी है। यदि हम अहिंसा की प्रतिष्ठिा करना चाहते हैं तो हमें दोनों ही दृष्टियों से विचार करना होगा। तथा उनके निवारण का उपाय भी ढूंढना होगा। हिंसा वर्तमान व्यवस्था के भीतर मौजूद है। इसीलिए व्यवस्था की हिंसा को जो एक दर्च्चन बन गया है, उसे दूर करने के लिए किसी वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार करना। अहिंसा यात्रा के प्रणेता आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने अपनी अहिंसा यात्रा के दौरान हिंसा के कारणों पर गहरी खोज की तथा उनके निवारण के लिए अहिंसा प्रशिक्षण का एक अभिक्रम भी शुरू किया। उस अभिक्रम के अनुसार अहिंसा प्रशिक्षण के चार आयाम सामने आये हैं- 1-अहिंसा सिद्धांत और इतिहास 2-हृदय परिवर्तन 3-अहिंसक जीवन शैली 4-सम्यक् आजीविका एवं आजीविका प्रशिक्षण इन चारों आयामों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार विकास किया जा सकता है। अहिंसा प्रशिक्षण सब मनुष्य शांति चाहते हैं। अच्चांति कोई नहीं चाहता। शांति केवल अहिंसा से ही संभव है। पर अहिंसा का अर्थ इतना ही नहीं है कि किसी जीव की हत्या न की जाये। दूसरों को पीड़ा न पंहुचाना, उनके अधिकारों का हनन करना भी अहिंसा है। इस अहिंसा की पहले भी आवश्यक थी और आज भी है। पर आज विनाच्चक शस्त्रों के अम्बार लगे हुए हैं। पूरी दूनिया जैसे बारूद के ढेर पर बैठी हुई है। आंतकवाद से बडे-बडे विकसित राष्ट्रों की नींद हराम हो रही है। धार्मिक उन्मादों से प्रेरित क्रुसडे, जोहाद तथा धर्म युद्ध ने मानव जाति को विनाश्य के चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। निहित स्वार्थ कि समूचि मानव जाति भयभीत है। गरीबी एवं अभाव के कारण लोग नारकीय जीवन जीने के लिए विवच्च है। सैनिक छावनियों में लाखों-लाख सैनिक प्रतिदिन युद्धाभ्यास करते हैं। हिंसा की इतनी सूक्ष्म जानकारी और प्रशिक्षण दी जा रही है कि वर्षो तक यह क्रम चलता रहता है। हर वर्ष उसकी पुनारावृति ही नहीं कराई जाती अपितु नई-नई तकनीक खोजी जाती है। नये-नये प्रेक्षापास्त नये-नये टेंक, नये-नये आग्नेयसस्त्र सामने आ रहे है। हिंसा के प्रशिक्षण के लिए प्रचार प्रसार पर मुट्ठी भर निहित स्वार्थी शक्तियों द्वारा अकूत संसाधन लगाये जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में मन में एक विकल्प उठता है कि इतनी प्रशिक्षण दी जाती है तो क्या अहिंसा की प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं है ? निश्चय ही आवश्यक तो है पर सवाल यह है कि उसे पूरा कैसे किया जाये ? क्या केवल धर्मशास्त्रो के पढने मात्र से अहिंसा जीवन में उतर आयेगी ? क्या केवल प्रवचन सुनने मात्र से अहिंसा का जीवन में अवतरण हो जायेगा? नहीं उसके लिए हमें अहिंसा के प्रशिक्षण पर विचार करना होगा। यह सोचना होगा कि हिंसा के क्या कारण हैं तथा कैसे उनका निवारण किया जा सकता है। पहले हम हिंसा के कारणों पर विचार करें। हिंसा दो प्रकार के कारण हैं। एक आंतरिक एवं दूसरा बाहरी। हिंसा के आंतरिक कारण - हिंसा का सबसे बड़ा पोषक कारण है - तनाव। वही आदमी हिंसा करता है तो तनाव से ग्रस्त रहता है। हिंसा का दूसरा पोषक कारण है - रासयनिक असंतुल्न। हिंसा केवल बाहरी कारणों से ही नहीं होती, उसके भीतरी कारण भी होते हैं। हमारी ग्रेथियों में जो रसायन बनते हैं, उन रसायनों में जब असंतुल्न पैदा होता है, हो जाता है, तब व्यक्ति हिंसक बन जाता है। हिंसा का तीसरा पोषक कारण है - नाड़ी तंत्रीय असंतुल्न। नाड़ी तंत्रीय असंतुल्न होते ही आदमी हिंसा पर उतारू हो जाता है। हिंसा का चौथा कारण है - निषेधात्मक दृष्टिकोण। धृणा, ईर्ष्या, भय, कामवासना ये सब निषेधक दृष्टिकोण हैं। उनसे भावतंत्र प्रभावित होता है और मनुष्य हिंसा में प्रवृत हो जाता है। हिंसा का पांचवा पोषक कारण है - चंचलता। मन की चंचलता, वाणी की चंचलता और शरीर की चंचलता। अधिक चंचलता से जैविक रसायनिक, शरीरिक और मनोवैज्ञानिक सभी प्रक्रियाएं बदल जाती हैं और हिंसा को उतेजना मिल जाती है। हिंसा के बाहरी कारण - विकास की मिथ्या अवधारणा असंतुलित समाज व्यवस्था जातीय और रंगभेद की व्यवस्था साम्प्रदायिक कट्टरता आर्थिक अभाव और अतिभाव भौतिकवाद पर आधारित उपभोक्तावाद आदि। हिंसा के उपयुक्त विवेचना से स्पष्ट होता है कि इसकी उत्पति के स्त्रोत यदि भीतर हैं तो बाहर भी है। यदि हम अहिंसा की प्रतिष्ठिा करना चाहते हैं तो हमें दोनों ही दृष्टियों से विचार करना होगा। तथा उनके निवारण का उपाय भी ढूंढना होगा। हिंसा वर्तमान व्यवस्था के भीतर मौजूद है। इसीलिए व्यवस्था की हिंसा को जो एक दर्च्चन बन गया है, उसे दूर करने के लिए किसी वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार करना। अहिंसा यात्रा के प्रणेता आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने अपनी अहिंसा यात्रा के दौरान हिंसा के कारणों पर गहरी खोज की तथा उनके निवारण के लिए अहिंसा प्रशिक्षण का एक अभिक्रम भी शुरू किया। उस अभिक्रम के अनुसार अहिंसा प्रशिक्षण के चार आयाम सामने आये हैं- 1-अहिंसा सिद्धांत और इतिहास 2-हृदय परिवर्तन 3-अहिंसक जीवन शैली 4-सम्यक् आजीविका एवं आजीविका प्रशिक्षण इन चारों आयामों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार विकास किया जा सकता है। | |
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अहिंसा यात्रा
शिक्षण पद्धति, समाज सुधार तथा विश्व शांति के क्षेत्र में आचार्य महाप्रज्ञ का प्रयास जारी है। आचार्य श्री ने अब अहिंसक विश्व के निर्माण पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है। विश्व के वर्तमान परिदृश्य में यह बात प्रस्तुत की जा रही है जहां हम प्रायः प्रतिदिन युद्ध व आतंकवाद की खबरें सुनते हैं। उन्होंने अहिंसा यात्रा के रूप में एक ऐसी यात्रा प्रारम्भ की है जो अहिंसा सौहार्द भ्रातृत्वभाव एवं शांति का संदेश प्रसारित कर रही है।
अहिंसक चेतना के जागरण व नैतिक मूल्यों के विकास हेतु ५ दिसम्बर २००१ को सुजानगढ़,लाडनूं (राजस्थान) से अहिंसा यात्रा प्रारम्भ की गई है। सन् २००४ तक समाप्य यह यात्रा राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश होते हुए पुनः राजस्थान में प्रविष्टि होगी अहिंसा यात्रा का लक्ष्य है नकारात्मक भावों को सकारात्मक भावों में बदलने का प्रशिक्षिण देना। आचार्य श्री मानते है गरीबी, शोषण, अन्याय, अपराध और प्रदुषण जैसी समसयाओं को केवल अध्यात्मिक प्रशिक्षिण एवं समाज व्यवस्था के परिवर्तन से भी नहीं सुलझाया जा सकता। उन्हें अहिंसा की चेतना के जागरण तथा आजीविका की प्रविधि के प्रशिक्षिण से समाहित किया जा सकता है।
आचार्य श्री कहते है अहिंसा यात्रा की परिकल्पना और अहिंसायात्राः एक महान् अभियान
उसका कार्यक्रम अशक्य ओर असंभव कल्पना पर आधारित नहीं है जितना शक्य और संभव है और जो दीर्धकालीन नीति के अनुसार परिवर्तन की दिशा दे सकता है, हिंसा की बढत को रोकने में सक्रिय भूमिका निभा सकता है। इस व्यवहारिक लक्ष्य के आधार पर अहिंसा यात्रा की परियोजना तैयार की गई है।
आचार्य श्री का मंतव्य है कि अहिंसा के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के मन में दृढ संकल्प होना अत्यन्त आवश्यक है।
अहिंसा यात्रा एक संपूर्ण समाधान
अहिंसा शाच्च्वत सत्य है। इसकी प्रासंगिकता पहले भी थी, आज भी है तथा भविष्य में भी रहेगी। यद्यपि विदेह अवस्था अहिंसा की चरम उपलब्धि है, पर देह के साथ भी अहिंसा की अनिवार्यता से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसलिए कहा गया है - परस्परोपग्रहो जीवानाम्। हर प्राणी एक दूसरे के सहयोग से जीता है। अहिंसा के बिना समाज और विश्व तो चल ही नहीं सकता, मनुष्य के अपने अस्तित्व के लिए अहिंसा अनिवार्य है। आचार्य श्री मानते हैं - अहिंसा केवल पारलैकिक साधना ही नहीं है अपितु इस दौनंदिन जीवन की उपयोगिता भी है।
अहिंसा यात्रा के मुख्य उट्ठेउदेश्याच्च्य है -
1- अहिंसक समाज संरचना
2- पूरे विश्व में अहिंसा के संदेश को फैलाना
3- जनसमुदाय के मध्य नैतिक संवेदना को बढ़ाना।
4- अहिंसा के लिए कार्यरत अंतराष्ट्रीय समूहों को एक साथ लाना।
5- समाज व संसार में हिंसा के प्रभाव के बारे में लोगों को बताना।
वर्तमान युग में अहिंसा यात्रा को अति महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक अभियान के रूप मना जा रहा है और यह आज के संदर्भ में उपयोगी सिद्ध हो रही है। इसकी महता व लक्ष्य के कारण इसका देश के मुर्धन्य व्यक्तियों द्वारा स्वागत किया गया है।
विभिन धर्मो के प्रमुखों ने सक्रिय रूप से संभागिता की है गुजरात में सौहार्द पूर्ण वातावरण के लिए आचार्य श्री के विचारों को महत्व दिया गया। अनिष्ट की आच्चंका के बीच कांपते कलजो के बीच रथ यात्रा में आचार्य श्री ने पहुच कर पूरे गुजरात को आच्च्वस्त किया।
आचार्य महाप्रज्ञ के अहिंसा एवं शांति के संदेश को फेलाने के इस पूनित कार्य में सर्वात्मना समर्पित होने के लिए हम सबको संकल्प बध होना चाहिए।
अहिंसा समवाय
आचार्य श्री महाप्रज्ञ के मार्गदर्शन में अहिंसा एवं शांति के लिए अहिंसा एवं शांति के लिए अहिंसा समवाय मंच का गठन हुआ। विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए २५ अक्टूबर १९९९ को अहिंसा समवाय के रूप में एक मंच सामने आया। यद्यपि कई लोग एवं संस्थान अहिंसा की विभिन्न कार्यक्रमों के संचालन में वयस्त है पर इनमें समग्रता का अभाव है। आंशिक कार्यो के वांछित परिणाम उपलब्ध नहीं होता। अहिंसा शाश्वत एवं परिपूर्ण सत्य है। अहिंसा की मूल्यवता वर्तमान के हिंसापूर्ण वातावरण में बहुत ज्यादा बढ़ गई है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार सभी व्यक्तियों एवं संस्थानों को साथ में बैठकर अहिंसा समवाय मंच के बारे में विचार विर्मश करना चाहिये। अहिंसा पर एक सर्व सम्म्त परियोजना विकसित करनी चाहिये तथा इसे मैत्रीपूर्ण तरीके से क्रियान्वित करना चाहिए। विभिन्न धार्मिक नेताओं एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं की संख्या बढने से यह गतिशील अपधारणा एवं मंच अब और सशक्त और मजबूत हो गया है।
अहिंसा समवाय के अंतर्गत प्रथम चरण में तीन मुख्य बिन्दुओं पर फोकस करने का निर्णय लिया गया है - (१) अनुसंधान (२) प्रशिक्षण (३) प्रयोग। अहिंसा मात्र सिद्धांत नहीं है। स्वस्थ समाज के लिए इसकी महता व प्रभाव को न्यायोचित एवं प्रमाणित करने के लिए अहिंसा समवाय ने राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर कई प्रयोग व कार्यक्रम दिए हैं।
अहिंसा की व्यापक अवधारणा व्यक्ति के इच्छा संयम की शक्ति के विकास पर निर्भर करती है। मंच में प्रदुषण मुक्त पर्यावरण एवं निःशस्त्रीकरण पूर्ण वातावरण को महत्व दिया गया है। विचारों के रूपांतरण पर बहुत कम प्रयास होते हैं। यह निशचित है कि जब तक अहिंसा की चेतना जागृत नहीं होती, वर्तमान संदर्भ के धटित हो रही प्रक्रियाओं में परिवर्तन संभव नहीं है। अंतराष्ट्रीय शांति शब्द का जाप करने मात्र से शांति स्थापित नहीं हो सकेगी। इसके लिए व्यक्ति अपनी इच्छाओं व भौतिक सुखों का कुछ संयम करे, यह अपेक्षित है। इस हेतु अहिंसक जागरण व हृदय परिवर्तन की जरूरत है।
आचार्य महाप्रज्ञ ने हमेशा देश की शिक्षा पद्धति को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। उनका मानना है कि शिक्षा का मूल उद्धेश्य है व्यक्ति का सर्वांगीण विकास तथा नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा एवं सशरित्रवान् मनुष्य का निर्माण। उन्होंने जीवन-विज्ञान के अंतर्गत विस्तृत पाठयक्रम प्रदान किया है। जीवन विज्ञान विद्यार्थीयों में व्यवहारिक एवं अभिवृति परिवर्तन सुनिश सुनिश चित करता है।
आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा विद्यार्थियों के लिए जो शैक्षणिक पाठयक्रम एवं प्रयोग संसूचित किए गये हैं वे उसके जीवन में ऐसे महत्पूर्ण जैव-रासायनिक एवं विद्युतीय परिर्वतन करते हैं जिससे उनका संपूर्ण रूप से रूपांतरण हो सके। आचार्य महाप्रज्ञ विशेष बल देकर कहते है कि एक विद्यार्थी को विविध आसनों एवं प्रयोगों का अनुगमन करना चाहिए। मूल्य परक जीवन जीने के लिए व्यक्ति को अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करना चाहिए
वो कहते हैं सिर्फ उच्च शिक्षा से प्राप्त बौद्धिक विकास के साथ एक व्यक्ति नैतिक भावनात्मक एवं आध्यात्मिक स्तर पर स्वतः विकास नहीं करता। व्यक्ति में सही भावात्मक विकास आवश्यक है जिससे प्रेम, करूणा, सहिष्णुता, धैर्य, संतोष आदि गुण उसमें विकसित हो। इस संदर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ ने वैश्विक समस्याओं के समाधान हेतु जीवन विज्ञान का उपक्रम प्रस्तुत किया।
आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा निर्मित एवं विकसित जीवन विज्ञान राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, बिहार, आदि राज्यों में विद्यार्थियों के लिए पाठयक्रम के रूप में शामिल किया गया है।
जीवन विज्ञान का मुख्य उद्धेश्य तीन प्रकार का है (१) ऐसे स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण करना जो शरीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं सामाजिक स्वस्थता के मध्य सामंजस्य स्थापित कर सके। (२) एक ऐसे नये समाज का निर्माण करना जो हिंसक उपद्रवों एवं अनैतिकता से मुक्त हो। (३) ऐसी नई पीढी का निर्माण करना जो आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व हो।
औपचारिक शिक्षा पाठसक्रमों में इस पाठयक्रम को सम्मिलित किया गया है। सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास के लिए इस पाठयक्रम के माध्यम से प्रशिक्षित करने हेतु सैकडों च्चिविर आयोजित हो चुके है ।
प्रेक्षाध्यानः एक प्रक्रिया
आचार्य महाप्रज्ञ ने व्यक्ति के आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास हेतु प्रेक्षाध्यान उपक्रम आविष्कृत किया। एक पद्धति को बदलना कठिन है पर व्यक्ति व समाज को बदलना उससे भी अधिक कठिन है। प्रेक्षाध्यान प्रयोग आत्मा शुद्धि की प्रकिया के उपक्रम है। आत्म विश्वास, सहिष्णुता, धैर्य एवं भावानात्मक संतुलन के विकास के लिए यह अत्यन्त मूल्यवान् है। प्रेक्षाध्यान व्यक्ति की अनासक्त चेतना को उजागर करता है। प्रेक्षाध्यान के विभिन्न वैज्ञानिक उपक्रम धर्म के एक नये ही स्वरूप को प्रकट करते है और यही व्यक्ति के दैनंदिन जीवन का अनिवार्य अंग होना चाहिये। धार्मिक जगत् में यह कोई चमत्कार से कम नहीं है। इसने एक नया दृष्टिकोण दिया है कि विज्ञान के बिना धर्म लंगड़ा है और लोगों में अनावश्यक विश्वास अर्जित नहीं कर सकता।
जन साधारण के बीच प्रेक्षाध्यान को विधिवत् प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करने से पूर्व आचार्य महाप्रज्ञ ने स्वयं पर ध्यान के विविध प्रयोग किये। महिनों की एकंता साधना में उन्होंने अपने आपको इसके चिंतन-मनन व संपोषण में नियोजित कर दिया जिससे उनकी आंतरिक ऊर्जा जागृत हो गई। इस कारण ध्यान की गहराइयों में पहुंचे। अपने अनुभवों को अपने गुरू आचार्य तुलसी को निवेदित किया। उन्होंने महाप्रज्ञ को इस अनुपम प्रयोग की प्रेरणा दी। आखिरकार ३ मार्च १९७७ को उन्होंने इसका विधिवत् प्रारंभ किया।
आत्मा की अतल गहराइयों में जाने के लिइ आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान के अंतर्गत कई विच्चिष्ट प्रयोग निर्दिष्ट किये हैं। (१) श्वास प्रेक्षा (२) चैतन्य प्रेक्षा (३) शरीर प्रेक्षा (४) लेच्च्या ध्यान रंगों का ध्यान (५) अनुप्रेक्षा स्वतः सूचन। उन्होंने मस्तिष्क के क्षेत्र से परे सोचा और अंतः प्रज्ञा के क्षेत्र में प्रवेश किया। यही चेतना की सहज शक्ति है।
प्रेक्षाध्यानः एक साधन
मनुष्य के जीवन में सात स्तर हैं शरीर, श्वास, प्राण ऊर्जा, मस्तिष्क, भाव, आभामंडल एवं चेतना। प्रेक्षाध्यान के माध्यम से निषेधक आभामंडल विधेयक आभामंडल में रूपांतरित किया जा सकता है। यह व्यक्तित्व के परिवर्तन का कारक बनता है। प्रेक्षाध्यान के नियमित प्रयोग से प्रकृतिगत पद्धति सक्रिय बनती है और उसे स्वस्थ एवं प्रसन्न बनाती है।
श्वास प्रेक्षा मन की एकाग्रता में वृद्धि करती है। यह मन को अधिक कार्य करने व अधिक उत्पादन बनाने के लिए प्रशिक्षित करता है। श्वास प्रेक्षा से श्वसन सही होता है तथा मन अच्छे व बुरे के बीच विभेद व कारणों को सीखता है।
यद्यपि प्रेक्षाध्यान की ये प्रविधियां प्राचीन जैन ग्रंथों से सार रूप में प्रस्तुत है और आचार्य श्री महाप्रज्ञ द्वारा इसकी पुनर्संरचना की गई है। जाति, वर्ण व धर्म की दिवारों से परे प्रत्येक व्यक्ति के लिए इसकी महता एवं प्रासंगिकता की अनुभुति की जा रही है। विचारों के परिवर्तन, सही भावों के विकास, विधायक चिंतन, मन व शरीर की क्षमता में वृद्धि के क्रम में प्रेक्षाध्यान ने रामबाण औषधि के रूप में प्रमाणित किया है।
राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर सैकडों सफल शिविर और सेमिनार आयोजित हो चुके हैं। प्रेक्षाध्यान जैसे अनुपम अवदान की विधियों को स्थापित किया गया। बुद्धिजीवियों, पेशेवर व्यक्तियों, राजपत्रित अधिकारियों, विद्वानों, डाक्टरों, व्यापारियों, राजनेताओं, अध्यापकों ओर अकादमिक सदसयों ने प्रेक्षाध्यान शिविरों में भाग लिया है और उनमें लाभान्वित हुए है।
प्रेक्षाध्यान एक प्रयोग
प्रेक्षाध्यान पेशेवर व्यक्तियों के केरियर के उच्चतम विकास में सहयोग करता है। यह आत्म विश्वास उत्पन्न करता है तथा मानसिक एकाग्रता को विकसित करता है। यह प्राण शक्ति को बढ़ाता है तथा गहन ज्ञान, समझ एवं ग्रहणच्चीलता को विकसित करता है। प्रेक्षा के अभ्यास से स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है। प्रेक्षाध्यान चेतन मन व अवचेतन मन दोनों को नियंत्रित करता है, परिणामस्वरूप व्यक्ति बहुत बुद्धिसंगत एवं तर्कसंगत हो जाता है। प्रयोगों से एक विधायक व्यक्तित्व का निर्माण होता है और अभीप्सित लक्ष्य की प्राप्ति सुस्पष्ट हो जाती है।
प्रेक्षाध्यान हारमोन्स को संयोजित करता है, फलतः व्यक्तित्व उन्नत बनता है।व्यक्तित्व को विनष्ट करने वाले, धृणा, क्रोध, ईर्ष्या आदि निषेधक भाव प्रेम व विन्रमता जैसे विधायक भावों मे बदल जाते हैं। प्रेक्षाध्यान व्यक्ति के भावों को विच्चुद्ध बनाता है तथा व्यावहारिक प्रतिमानों को सुधारता है।
किसी भी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के लिए चार सूत्रीय योजना निर्मित की जा सकती है - (१) अभिप्रेरणा (२) एकाग्रता (३) शिथिलीकरण (४) द्रष्टाभाव। चूंकि अवचेतन मन सपनों को पहचानने एवं महत्वाकांक्षाओं की संपूर्ती का काम करता है। अवचेतन मान की शक्तियों को नियोजित करना आवश्यक है। प्रेक्षाध्यान हमारे आत्मा विश्वास एवं इच्छा शक्ति को विकसित करने में सहयोग करता है। यह मन की एकाग्रता को बढ़ाता है। यह शरीर को शीथिल करता है और अपने लक्ष्य को देखने में हमें मदद करता है। जिससे उसे प्राप्त किया जा सके।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने जो विभिन्न उपाय, प्रक्रिया एवं तकनीक खोजी हैं उन्हें प्रशिक्षण पाठयक्रम में सम्मिलित किया गया है। तेरापंथ समुदाय का समण-समणी वर्ग उसके प्रयोग एवं क्रियान्वयन के लिए समर्पित है। इससे आम आदमी के व्यक्तित्व विकास में परिवर्तन आ रहा है। अंतराष्ट्रीय स्तर पर पूरे विश्व के विभिन्न भागों में प्रशिक्षिण शिविरों के माध्यम से यह वर्ग उल्लेखनीय कार्य रहा है।
प्रेक्षाध्यानः एक चिकित्सा
शरीर स्वस्थ है तो मन स्वस्थ है। जन साधारण बाहरी दबावों से प्रभावित होता है और तनाव व संधर्ष की गिरफ्त में आ जाता है। इसका परिणाम मानसिक तथा भावात्मक तनाव के रूप में सामने आता है जो भय, धृणा आदि का कारण है। प्रेक्षाध्यान इन भावों को अभय एवं करूणा के रूप में परिवर्तन कर देता है। यह सुखपूर्ण संसार बनाने में सहयोग करता है जहां लोग पूरे सुख से जी सके। यह बात तथ्यपूर्ण है कि यदि दवा नहीं चाहते तब तुम्हें ध्यान में आवच्च्य लग जाना चाहिये। प्रेक्षाध्यान हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत बनाता है उससे व्यक्ति आजीवन फिट व स्वस्थ बना रह सकता है।
कायोत्यर्ग प्रेक्षाध्यान का एक चरण है जो शिथिलकरण की विधिवत् एवं उन्नतिकारक प्रक्रिया है। कायोत्सर्ग परानुकंपी नाडी तंत्र को सक्रिय बनाता है और तनाव के मूल कारण बदल देता है। कायोत्सर्ग शरीर के अतिरिक्त दबाव को दूर करने में सक्षम है और इससे शरीर व मन को गहन शिथिल स्थित में ले जाया जा सकता है। कार्यात्सर्ग तनाव के दुष्प्रभावों से व्यक्ति को बचाता है।
प्रेक्षाध्यान का मानव शरीर व इसके विभिन्न तंत्रों पर स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। विश्व प्रसिद्ध अनुसंधान केन्द्र अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान दिल्ली में हृदयरोगियों के लिए एक स्वतंत्र विभाग है। इसके विभागध्यक्ष डा. एस. पी. मनचंदा ने प्रेक्षा प्रयोगों से प्रभावित होकर हृदयरोगियों पर इनके प्रभाव का अध्ययन किया। अध्ययन के सकारात्मक परिणामों के आधार पर शल्य चिकित्सा के बाद के शल्य चिकित्सा से पहले वाले रोगियों के लिए डा. मनचंदा ने यह निर्दिष किया कि वे अध्यात्म साधना केन्द्र मेहरोली (नई दिल्ली) में प्रेक्षा प्रयोग अनिवार्य रूप से करे। कई वर्षो से प्रतिमाह वहां सात-सात दिन के शिविर आयोजित होते हैं। अगले छह-छह माह तक शिविर के लिए संख्या आरक्षित हो जाती है। प्रेक्षाध्यान थेरोपी के रूप में अच्छी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है।
इन सब तथ्यों के आधार पर यह प्रत्यक्ष एवं स्पष्ट है कि प्रेक्षाध्यान सिर्फ विचारों के रूपांतरण और क्षमता-वृद्धि का ही साधना नहीं है, मात्र व्यक्तित्व-विकास की प्रविधि ही नहीं है अपितु एक संपूर्ण चिकित्सा भी है। शारीरिक, मानसिक व भावानात्मक स्वास्थ्य के लिए यह प्रभावी पद्धति है।
प्रेक्षाध्यानः एक प्रक्रिया
आचार्य महाप्रज्ञ ने व्यक्ति के आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास हेतु प्रेक्षाध्यान उपक्रम आविष्कृत किया। एक पद्धति को बदलना कठिन है पर व्यक्ति व समाज को बदलना उससे भी अधिक कठिन है। प्रेक्षाध्यान प्रयोग आत्मा शुद्धि की प्रकिया के उपक्रम है। आत्म विश्वास, सहिष्णुता, धैर्य एवं भावानात्मक संतुलन के विकास के लिए यह अत्यन्त मूल्यवान् है। प्रेक्षाध्यान व्यक्ति की अनासक्त चेतना को उजागर करता है। प्रेक्षाध्यान के विभिन्न वैज्ञानिक उपक्रम धर्म के एक नये ही स्वरूप को प्रकट करते है और यही व्यक्ति के दैनंदिन जीवन का अनिवार्य अंग होना चाहिये। धार्मिक जगत् में यह कोई चमत्कार से कम नहीं है। इसने एक नया दृष्टिकोण दिया है कि विज्ञान के बिना धर्म लंगड़ा है और लोगों में अनावश्यक विश्वास अर्जित नहीं कर सकता।
जन साधारण के बीच प्रेक्षाध्यान को विधिवत् प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करने से पूर्व आचार्य महाप्रज्ञ ने स्वयं पर ध्यान के विविध प्रयोग किये। महिनों की एकंता साधना में उन्होंने अपने आपको इसके चिंतन-मनन व संपोषण में नियोजित कर दिया जिससे उनकी आंतरिक ऊर्जा जागृत हो गई। इस कारण ध्यान की गहराइयों में पहुंचे। अपने अनुभवों को अपने गुरू आचार्य तुलसी को निवेदित किया। उन्होंने महाप्रज्ञ को इस अनुपम प्रयोग की प्रेरणा दी। आखिरकार ३ मार्च १९७७ को उन्होंने इसका विधिवत् प्रारंभ किया।
आत्मा की अतल गहराइयों में जाने के लिइ आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान के अंतर्गत कई विच्चिष्ट प्रयोग निर्दिष्ट किये हैं। (१) श्वास प्रेक्षा (२) चैतन्य प्रेक्षा (३) शरीर प्रेक्षा (४) लेच्च्या ध्यान रंगों का ध्यान (५) अनुप्रेक्षा स्वतः सूचन। उन्होंने मस्तिष्क के क्षेत्र से परे सोचा और अंतः प्रज्ञा के क्षेत्र में प्रवेश किया। यही चेतना की सहज शक्ति है।
प्रेक्षाध्यानः एक साधन
मनुष्य के जीवन में सात स्तर हैं शरीर, श्वास, प्राण ऊर्जा, मस्तिष्क, भाव, आभामंडल एवं चेतना। प्रेक्षाध्यान के माध्यम से निषेधक आभामंडल विधेयक आभामंडल में रूपांतरित किया जा सकता है। यह व्यक्तित्व के परिवर्तन का कारक बनता है। प्रेक्षाध्यान के नियमित प्रयोग से प्रकृतिगत पद्धति सक्रिय बनती है और उसे स्वस्थ एवं प्रसन्न बनाती है।
श्वास प्रेक्षा मन की एकाग्रता में वृद्धि करती है। यह मन को अधिक कार्य करने व अधिक उत्पादन बनाने के लिए प्रशिक्षित करता है। श्वास प्रेक्षा से श्वसन सही होता है तथा मन अच्छे व बुरे के बीच विभेद व कारणों को सीखता है।
यद्यपि प्रेक्षाध्यान की ये प्रविधियां प्राचीन जैन ग्रंथों से सार रूप में प्रस्तुत है और आचार्य श्री महाप्रज्ञ द्वारा इसकी पुनर्संरचना की गई है। जाति, वर्ण व धर्म की दिवारों से परे प्रत्येक व्यक्ति के लिए इसकी महता एवं प्रासंगिकता की अनुभुति की जा रही है। विचारों के परिवर्तन, सही भावों के विकास, विधायक चिंतन, मन व शरीर की क्षमता में वृद्धि के क्रम में प्रेक्षाध्यान ने रामबाण औषधि के रूप में प्रमाणित किया है।
राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर सैकडों सफल शिविर और सेमिनार आयोजित हो चुके हैं। प्रेक्षाध्यान जैसे अनुपम अवदान की विधियों को स्थापित किया गया। बुद्धिजीवियों, पेशेवर व्यक्तियों, राजपत्रित अधिकारियों, विद्वानों, डाक्टरों, व्यापारियों, राजनेताओं, अध्यापकों ओर अकादमिक सदसयों ने प्रेक्षाध्यान शिविरों में भाग लिया है और उनमें लाभान्वित हुए है।
प्रेक्षाध्यान एक प्रयोग
प्रेक्षाध्यान पेशेवर व्यक्तियों के केरियर के उच्चतम विकास में सहयोग करता है। यह आत्म विश्वास उत्पन्न करता है तथा मानसिक एकाग्रता को विकसित करता है। यह प्राण शक्ति को बढ़ाता है तथा गहन ज्ञान, समझ एवं ग्रहणच्चीलता को विकसित करता है। प्रेक्षा के अभ्यास से स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है। प्रेक्षाध्यान चेतन मन व अवचेतन मन दोनों को नियंत्रित करता है, परिणामस्वरूप व्यक्ति बहुत बुद्धिसंगत एवं तर्कसंगत हो जाता है। प्रयोगों से एक विधायक व्यक्तित्व का निर्माण होता है और अभीप्सित लक्ष्य की प्राप्ति सुस्पष्ट हो जाती है।
प्रेक्षाध्यान हारमोन्स को संयोजित करता है, फलतः व्यक्तित्व उन्नत बनता है।व्यक्तित्व को विनष्ट करने वाले, धृणा, क्रोध, ईर्ष्या आदि निषेधक भाव प्रेम व विन्रमता जैसे विधायक भावों मे बदल जाते हैं। प्रेक्षाध्यान व्यक्ति के भावों को विच्चुद्ध बनाता है तथा व्यावहारिक प्रतिमानों को सुधारता है।
किसी भी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के लिए चार सूत्रीय योजना निर्मित की जा सकती है - (१) अभिप्रेरणा (२) एकाग्रता (३) शिथिलीकरण (४) द्रष्टाभाव। चूंकि अवचेतन मन सपनों को पहचानने एवं महत्वाकांक्षाओं की संपूर्ती का काम करता है। अवचेतन मान की शक्तियों को नियोजित करना आवश्यक है। प्रेक्षाध्यान हमारे आत्मा विश्वास एवं इच्छा शक्ति को विकसित करने में सहयोग करता है। यह मन की एकाग्रता को बढ़ाता है। यह शरीर को शीथिल करता है और अपने लक्ष्य को देखने में हमें मदद करता है। जिससे उसे प्राप्त किया जा सके।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने जो विभिन्न उपाय, प्रक्रिया एवं तकनीक खोजी हैं उन्हें प्रशिक्षण पाठयक्रम में सम्मिलित किया गया है। तेरापंथ समुदाय का समण-समणी वर्ग उसके प्रयोग एवं क्रियान्वयन के लिए समर्पित है। इससे आम आदमी के व्यक्तित्व विकास में परिवर्तन आ रहा है। अंतराष्ट्रीय स्तर पर पूरे विश्व के विभिन्न भागों में प्रशिक्षिण शिविरों के माध्यम से यह वर्ग उल्लेखनीय कार्य रहा है।
सब मनुष्य शांति चाहते हैं। अशांति कोई नहीं चाहता। शांति केवल अहिंसा से ही संभव है। पर अहिंसा का अर्थ इतना ही नहीं है कि किसी जीव की हत्या न की जाये। दूसरों को पीड़ा न पंहुचाना, उनके अधिकारों का हनन करना भी अहिंसा है। इस अहिंसा की पहले भी आवच्च्यक थी और आज भी है। पर आज विनाच्चक शस्त्रों के अम्बार लगे हुए हैं। पूरी दूनिया जैसे बारूद के ढेर पर बैठी हुई है। आंतकवाद से बडे-बडे विकसित राष्ट्रों की नींद हराम हो रही है। धार्मिक उन्मादों से प्रेरित क्रुसडे, जोहाद तथा धर्म युद्ध ने मानव जाति को विनाच्च के चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। निहित स्वार्थ कि समूचि मानव जाति भयभीत है। गरीबी एवं अभाव के कारण लोग नारकीय जीवन जीने के लिए विवश है।
सैनिक छावनियों में लाखों-लाख सैनिक प्रतिदिन युद्धाभ्यास करते हैं। हिंसा की इतनी सूक्ष्म जानकारी और प्रशिक्षण दी जा रही है कि वर्षो तक यह क्रम चलता रहता है। हर वर्ष उसकी पुनारावृति ही नहीं कराई जाती अपितु नई-नई तकनीक खोजी जाती है। नये-नये प्रेक्षापास्त नये-नये टेंक, नये-नये आग्नेयसस्त्र सामने आ रहे है। हिंसा के प्रशिक्षण के लिए प्रचार प्रसार पर मुट्ठी भर निहित स्वार्थी शक्तियों द्वारा अकूत संसाधन लगाये जा रहे हैं।
ऐसी स्थिति में मन में एक विकल्प उठता है कि इतनी ट्रैनिंग दी जाती है तो क्या अहिंसा की प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं है ? निश्चय ही आवश्यक तो है पर सवाल यह है कि उसे पूरा कैसे किया जाये ? क्या केवल धर्मशास्त्रों के पढने मात्र से अहिंसा जीवन में उतर आयेगी ? क्या केवल प्रवचन सुनने मात्र से अहिंसा का जीवन में अवतरण हो जायेगा? नहीं उसके लिए हमें अहिंसा के प्रशिक्षण पर विचार करना होगा। यह सोचना होगा कि हिंसा के क्या कारण हैं तथा कैसे उनका निवारण किया जा सकता है।
पहले हम हिंसा के कारणों पर विचार करें। हिंसा दो प्रकार के कारण हैं। एक आंतरिक एवं दूसरा बाहरी।
हिंसा के आंतरिक कारण -
हिंसा का सबसे बड़ा पोषक कारण है - तनाव। वही आदमी हिंसा करता है तो तनाव से ग्रस्त रहता है।
हिंसा का दूसरा पोषक कारण है - रासयनिक असंतुल्न। हिंसा केवल बाहरी कारणों से ही नहीं होती, उसके भीतरी कारण भी होते हैं। हमारी ग्रेथियों में जो रसायन बनते हैं, उन रसायनों में जब असंतुल्न पैदा होता है, हो जाता है, तब व्यक्ति हिंसक बन जाता है।
हिंसा का तीसरा पोषक कारण है - नाड़ी तंत्रीय असंतुल्न। नाड़ी तंत्रीय असंतुल्न होते ही आदमी हिंसा पर उतारू हो जाता है।
हिंसा का चौथा कारण है - निषेधात्मक दृष्टिकोण। धृणा, ईर्ष्या, भय, कामवासना ये सब निषेधक दृष्टिकोण हैं। उनसे भावतंत्र प्रभावित होता है और मनुष्य हिंसा में प्रवृत हो जाता है।
हिंसा का पांचवा पोषक कारण है - चंचलता। मन की चंचलता, वाणी की चंचलता और शरीर की चंचलता। अधिक चंचलता से जैविक रसायनिक, शरीरिक और मनोवैज्ञानिक सभी प्रक्रियाएं बदल जाती हैं और हिंसा को उतेजना मिल जाती है।
हिंसा के बाहरी कारण -
विकास की मिथ्या अवधारणा
असंतुलित समाज व्यवस्था
जातीय और रंगभेद की व्यवस्था
साम्प्रदायिक कट्टरता
आर्थिक अभाव और अतिभाव
भौतिकवाद पर आधारित उपभोक्तावाद आदि।
हिंसा के उपयुक्त विवेचना से स्पष्ट होता है कि इसकी उत्पति के स्त्रोत यदि भीतर हैं तो बाहर भी है। यदि हम अहिंसा की प्रतिष्ठित करना चाहते हैं तो हमें दोनों ही दृष्टियों से विचार करना होगा। तथा उनके निवारण का उपाय भी ढूंढना होगा। हिंसा वर्तमान व्यवस्था के भीतर मौजूद है। इसीलिए व्यवस्था की हिंसा को जो एक दर्च्चन बन गया है, उसे दूर करने के लिए किसी वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार करना। अहिंसा यात्रा के प्रणेता आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने अपनी अहिंसा यात्रा के दौरान हिंसा के कारणों पर गहरी खोज की तथा उनके निवारण के लिए अहिंसा प्रशिक्षण का एक अभिक्रम भी शुरू किया।
उस अभिक्रम के अनुसार अहिंसा प्रशिक्षण के चार आयाम सामने आये हैं-
1-अहिंसा सिद्धांत और इतिहास
2-हृदय परिवर्तन
3-अहिंसक जीवन शैली
4-सम्यक् आजीविका एवं आजीविका प्रशिक्षण
इन चारों आयामों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार विकास किया जा सकता है।
प्रेक्षाध्यानः एक चिकित्सा
शरीर स्वस्थ है तो मन स्वस्थ है। जन साधारण बाहरी दबावों से प्रभावित होता है और तनाव व संधर्ष की गिरफ्त में आ जाता है। इसका परिणाम मानसिक तथा भावात्मक तनाव के रूप में सामने आता है जो भय, धृणा आदि का कारण है। प्रेक्षाध्यान इन भावों को अभय एवं करूणा के रूप में परिवर्तन कर देता है। यह सुखपूर्ण संसार बनाने में सहयोग करता है जहां लोग पूरे सुख से जी सके। यह बात तथ्यपूर्ण है कि यदि दवा नहीं चाहते तब तुम्हें ध्यान में आवच्च्य लग जाना चाहिये। प्रेक्षाध्यान हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत बनाता है उससे व्यक्ति आजीवन फिट व स्वस्थ बना रह सकता है।
कायोत्यर्ग प्रेक्षाध्यान का एक चरण है जो शिथिलकरण की विधिवत् एवं उन्नतिकारक प्रक्रिया है। कायोत्सर्ग परानुकंपी नाडी तंत्र को सक्रिय बनाता है और तनाव के मूल कारण बदल देता है। कायोत्सर्ग शरीर के अतिरिक्त दबाव को दूर करने में सक्षम है और इससे शरीर व मन को गहन शिथिल स्थित में ले जाया जा सकता है। कार्यात्सर्ग तनाव के दुष्प्रभावों से व्यक्ति को बचाता है।
प्रेक्षाध्यान का मानव शरीर व इसके विभिन्न तंत्रों पर स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। विश्व प्रसिद्ध अनुसंधान केन्द्र अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान दिल्ली में हृदयरोगियों के लिए एक स्वतंत्र विभाग है। इसके विभागध्यक्ष डा. एस. पी. मनचंदा ने प्रेक्षा प्रयोगों से प्रभावित होकर हृदयरोगियों पर इनके प्रभाव का अध्ययन किया। अध्ययन के सकारात्मक परिणामों के आधार पर शल्य चिकित्सा के बाद के शल्य चिकित्सा से पहले वाले रोगियों के लिए डा. मनचंदा ने यह निर्दिष किया कि वे अध्यात्म साधना केन्द्र मेहरोली (नई दिल्ली) में प्रेक्षा प्रयोग अनिवार्य रूप से करे। कई वर्षो से प्रतिमाह वहां सात-सात दिन के शिविर आयोजित होते हैं। अगले छह-छह माह तक शिविर के लिए संख्या आरक्षित हो जाती है। प्रेक्षाध्यान थेरोपी के रूप में अच्छी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है।
इन सब तथ्यों के आधार पर यह प्रत्यक्ष एवं स्पष्ट है कि प्रेक्षाध्यान सिर्फ विचारों के रूपांतरण और क्षमता-वृद्धि का ही साधना नहीं है, मात्र व्यक्तित्व-विकास की प्रविधि ही नहीं है अपितु एक संपूर्ण चिकित्सा भी है। शारीरिक, मानसिक व भावानात्मक स्वास्थ्य के लिए यह प्रभावी पद्धति है।
जीवन जीना एक बात है सार्थक जीवन जीना दूसरी बात है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो निच्च्िचत उद्देच्च्य के साथ जीते हैं और विच्चिष्ट जीवन शौली से जीते हैं। उनका जीवन एक संस्कृति होती है। आज आधुनिक के नाम पर तथा मिथ्या अर्थच्चास्त्रीय अवधारणा के कारण मुक्त उपभोक्तावादी संस्कृति पनप रही है। उसके च्चिकजे से बचाने के लिए अहिंसक जीवन शौली का प्रच्चिक्षण जरूरी है।
अहिंसक जीवन शौली का पहला सूत्र है - संयमः खलु जीवनम् संयम ही जीवन है। संयम रखेगें तो जीवन चलेगा। यदि असंयम बढ़ाया गया तो एक आदमी का ही नहीं पूरी सृष्टि के विनाच्च का प्रसंग आ सकता है।
सात्विक आहार, मद्य-निषेध, क्रुरता-निवारण, पर्यावरण-चेतना का जागरण, अनावच्च्यक हिंसा का वर्जन, उपभोक्तावादी मनोवृति का परित्याग - ये सब संयममय जीवन एवं अहिंसक जीवन शौली के अंग हैं। अणुव्रत का पूरा दर्च्चन अहिंसक जीवन शौली का ही प्रारूप है।
महावीर भगवान के निर्वाण के उपरांत भरत क्षेत्र के तीर्थंकरों का आभाव हुआ। वह इस भरत क्षेत्र के प्राणियों का एक प्रकार से अभाग्य ही कहना चाहिये। भगवान के साक्षात दर्शन और उनकी दिव्य ध्वनि सुनने का सौभाग्य जब प्राप्त होता है तो संसार की असारता के बारे में सहज ही ज्ञान और विश्वास हो जाता है। आज जो आचार्य परम्परा अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है और जो महान पूर्वाचार्य हमारे लिये प्रेरणादायक हैं उनके माध्यम से यदि हम चाहें तो जिस ओर भगवान जा चुके हैं, पहुँच चुके हैं, उस ओर जाने का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
आचार्यों ने, जो संसार से ऊपर उठने की इच्छा रखते हैं उन्हे दिग्दर्शन कराया है दिशाबोध दिया है, उसका लाभ लेना हमारे ऊपर निर्भर है। उन्होने जीवन भर चिंतन, मनन और और मंथन कर के नवनीत रूप में हमें जो ज्ञान दिया है उसमें अवगाहन करना, और आत्म तत्त्व को पहचानना, विषय कषाय से युक्त संसारी प्राणी के लिये टेढी खीर है। आसान नहीं है। पर फिर भी उसमें कुछ बातें आपके सामने रख रहा हूँ।
आचार्यों के साहित्य में आध्यात्म की ऐसी धारा बही है कि कोई भी ग्रंथ उठायें, कोई भी प्रसंग लें, हर गाथा, हर पद पर्याप्त है। उसमें वही रस, वही संवेदना और वही अनुभूति आज भी प्राप्त हो सकती है जो उन आचार्यों को प्राप्त हुई थी। पर उसे प्राप्त करने वाले विरले ही जीव हैं। उसे प्राप्त तो किया जा सकता है पर सभी प्राप्त कर लेंगे, यह कहा नहीं जा सकता। मात्र अहिंसा का सूत्र ले लें। महावीर भगवान ने अहिंसा की उपासना की, उनके पूर्व तेईस तीर्थंकरों ने भी की और उनके पूर्व भी इस अहिंसा की उपासना की जाती रही। अहिंसा के आभाव में आत्मोपलब्धि सम्भव नहीं है।
विश्व का प्रत्येक व्यक्ति शांति चाहता है। जीवन चाहता है। सुख की इच्छा रखता है और दुःख से भयभीत है। दुःख निवृत्ति के उपाय में अहर्निश प्रयत्नवान है लेकिन वास्तविक सुख क्या है, इसकी जानकारी नहीं होने से तात्कालिक भौतिक सुख को पाने में लगा हुआ है। इसी में अनंत काल खो चुका है। भगवान महावीर ने अहिंसा का जो उपदेश दिया है, वह अनन्त सुख की इच्छा रखने वाले के लिये दिया है। उस अहिंसा का दर्शन करना, उसके स्वरूप को समझना भी आज के व्यस्त जीवन में आसान नहीं है। यहाँ हजारों व्यक्ति विद्यमान हैं और सभी धर्म श्रवण कर रहे हैं। वास्तव में, श्रवण तो वही है जो जीवन को परिवर्तित कर दे।
प्रवचन सुनने के साथ-साथ आपके मन में ख्याल बना रहता है कि प्रवचन समाप्त हो और चलें। यह जो आकुलता है, यह जो अशांति है, यह अशांति ही आपको अहिंसा से दूर रखती है। आकुलता होना ही अहिंसा है। दूसरों को पीडा देना भी अहिंसा है लेकिन यह अधूरी परिभाषा है। इस अहिंसा के त्याग से जो हिंसा आती है वह भी अधूरी है। वास्तव में जब तक आत्मा से रागद्वेष परिणाम समाप्त नहीं होते, तबतक अहिंसा प्रकट नहीं होती।
अहिंसा की परिभाषा के रूप में भगवान महावीर ने सन्देश दिया है कि जियो और जीने दो। जियो पहले रखा और जीने दो बाद में रखा। जो ठीक से जीयेगा वही तो जीने देगा। जीना प्रथम है, किस तरह जीना है यह भी सोंचना होगा। वास्तविक जीना तो रागद्वेष से मुक्त हो कर जीना है। यही अहिंसा की सर्वोत्तम उपलब्धि है। सुना है विदेशों में भारत की तुलना में कम हत्याएँ होतीं हैं, लेकिन आत्महत्याएँ अधिक होती हैं जो अधिक खतरनाक हैं। स्वयं अपना जीना ही जिसे पसन्द नहीं, जो स्वयं जीने को पसन्द नहीं करता, जो स्वयं को सुरक्षा नहीं देता वह सबसे खतरनाक साबित होता है। उससे क्रूर और निर्दयी कोई और नहीं है। वह दुनिया में शांति देखना पसन्द नहीं करेगा।
शांति के अनुभव के साथ जो जीवन है उसका महत्व नहीं जानना ही हिंसा का पोषण है। आकुल विकल हो जाना ही हिंसा है। रात दिन बेचैनी का अनुभव करना, यही हिंसा है। तब ऐसी स्थिति में जो भी मन, वचन, काय की चेष्टायें होंगी उनका प्रभाव दूसरे पर भी पडेगा और फलस्वरूप द्रव्य-हिंसा बाह्य में घटित होगी। द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा ये दो प्रकार के हिंसा हैं। द्रव्य-हिंसा में दूसरे की हिंसा हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। किंतु भाव-हिंसा के माध्यम से अपनी आत्मा का विनाश अवश्य होता है और उसका प्रभाव भी पूरे विश्व पर पडता है। स्वयं को पीडा में डालने वाला यह न सोचे कि उसने मात्र अपना घात किया है, उसने आसपास पूरे विश्व को दूषित किया है।
प्रत्येक धर्म में अहिंसा की उपासना पर जोर दिया गया है। किंतु महावीर भगवान का सन्देश अहिंसा को लेकर बहुत गहरा है। वे कहते हैं कि प्राण दूसरे के नही अपने भी हैं। हिंसा के द्वारा दूसरे के प्राण का घात हो, ऐसा नहीं है। पर अपने प्राणो का विघटन अवश्य होता है। दूसरे के प्राणों का विघटन बाद में होगा, पर हिंसा के भाव मात्र से अपने प्राणों का विघटन पहले होआ। अपने प्राणों का विघटन होना ही वस्तुतः हिंसा है। जो बिना हिंसा का ऐसा सत्य-स्वरूप जानेगा वही अहिंसा को प्राप्त कर सकेगा।
जो व्यक्ति राग करता है या द्वेष करता है और अपनी आत्मा में आकुलता उत्पन्न कर लेता है, वह व्यक्ति संसार के बन्धन में बन्ध जाता है और निरंतर दुःख पाता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति स्वयं बन्धन को प्राप्त करेगा और बन्धन में पडकर दुःखी होगा, उसका प्रतिबिम्ब दूसरे पर पडे बिना नहीं रहेगा, वह वातावरण को भी दुःखी बनायेगा। एक मछली कुएँ में मर जाये तो उस सारे जल को गन्दा बना देती है।
एक व्यक्ति रोता है तो दूसरे व्यक्ति को भी रुलाता है। एक व्यक्ति हँसता है तो दूसरा भी हँसने लगता है। फूल को देख कर बच्चा भी बहुत देर तक नहीं रो सकता। फूल हाथ मे6 आते ही वह रोता-रोता भी खिल जायेगा, हँसने लगेगा और सभी को हँसा देगा। हँसाये ही यह नियम नहीं है किंतु सबको प्रभावित अवश्य जरूर करेगा। आप कह सकते हैं कोई अकेला रो रहा हो तो किसी दूसरे जो क्या दिक्कत आयेगी। किंतु आचार्य उमा स्वामी कहते है कि शोक करना, आलस्य करना, दीनता व्यक्त करना, सामने वाले व्यक्ति पर प्रभाव डाले बिना नहीं रहते।
आप बैठकर शांति से दत्तचित्त होकर भोजन कर रहे हैं। किसी प्रकार का विकारी भाव आपके मन में नहीं है। ऐसे समय में यदि आपके सामने कोई बहुत भूखा व्यक्ति रोटी माँगने गिडगिडाता हुआ आ जाता है तो आप में परिवर्तन आये बिना नहीं रहता। उसका रोना आपके ऊपर प्रभाव डालता है। आप भी दुःखी हो जाते हैं और असातावेदनीय कर्म के बन्ध के लिये कारण बन जाता है। इसलिये ऐसा मत सोंचिये कि हम राग कर रहे हैं, द्वेष कर रहे हैं तो अपने आप में तडप रहे हैं, दूसरे के लिये क्या कर रहे हैं? हमारे भावों का दूसरों पर भी प्रभाव पडता है। हिंसा का संपादन कर्ता हमारा रागद्वेष परिणाम है। शारीरिक गुणों का घात करना द्रव्य हिंसा है और आध्यात्मिक गुणों का आघात करना, उसमें व्यवधान करना भाव हिंसा है। वह ‘स्व’, ‘पर’ दोनो की हो सकती है।
गृहस्थाश्रम की बात है। माँ ने कहा, अंगीठी के ऊपर भगौनी में दूध है। उसे नीचे उतार कर दो बर्तनों में निकाल लेना। एक बर्तन में दही जमाना है और दूसरे में दूध ही रखना है। जो बर्तन छोटा है उसे आधा रखना, उसमें दही जमाने के लिये सामग्री पडी है और दूसरे बर्तन में जितना दूध शेष है, रख देना। दोनो को पृथक-पृथक रखना। सारा काम तो कर लिया पर दोनो बर्तन पृथक नहीं रखे। परिणाम यह निकला कि प्रातःकाल दोनों बर्तनों में दही जम गया। एक में दही जमाने का साधन नहीं था फिर भी जम गया, वह दूसरे के सम्पर्क से जम गया।
जब जड पदार्थ में संगति से परिवर्तन हो गया तो क्या चेतन द्रव्य में परिवर्तन नहीं होगा? परिवर्तन प्रत्येक समय में प्रत्येक द्रव्य में हो रहा है और उसका असर आसपास पड रहा है। हम इस रहस्य को समझ नहीं पाते। इसलिये आचार्यों ने कहा कि प्रमादी मत बनो। असावधान मत होओ।
बुद्ध कहते हैं कि प्राणियों पर करुणा करो, यीशु कहते हैं कि प्राणियों की रक्षा करो और नानक आदि सभी कहते हैं कि दूसरों की रक्षा करो किंतु भगवान महावीर कहते हैं कि स्वयं बचो, दूसरा अपने आप बच जायेगा। दूसरे को बचाने जाओगे तो वह बचे ही, यह अनिवार्य नही है लेकिन स्वयं रागद्वेष से बचोगे तो हिंसा सम्भव नहीं है। ‘जियो और जीने दो’, पहले तुम खुद जियो क्योंकि जो खुद जीना चाहेगा वह दूसरों के लिये जीने में बाधा डाल ही नहीं सकता।
हमारे जीवन से दूसरों के लिये तभी खतरा है जबतक हम खुद प्रमादी हैं, असावधान हैं। ‘अप्रमत्तो भव’- प्रमाद मत करो। एक क्षण भी प्रमाद मत करो, अप्रमत्त दशा में लीन रहो। आत्मा में विचरण करना ही अप्रमत्त दशा का प्रतीक है। वहाँ राग द्वेष करेगा और अपनी आत्मा से बाहर दूर रहेगा, फिर चाहे वह किसी गति का प्राणी क्यों ना हो। वह देव भी हो सकता है। वह नारकी हो सकता है। वह मनुष्य भी हो सकता है। मनुष्य में भी गृहस्थ भी हो सकता है या गृह-त्यागी भी हो सकता है। वह संत या ऋषि भी हो सकता है। जिस समय जीव रागद्वेष से युक्त होता है उस समय उससे हिंसा हुए बिना रह नहीं सकती।
आज भी अहिंसा का अप्रत्यक्ष रूप से प्रयोग होता है न्यायालय में। वहाँ पर भी भाव-हिंसा का ध्यान रखा जाता है। भावहिंसा के आधार पर ही न्याय करते हैं। एक व्यक्ति ने निशाना लगाकर गोली चलाई। उसने निशाना मात्र सीखने की दृष्टि से लगाया था। निशाना चूक गया, गोली जाकर लग गयी एक व्यक्ति को और उसकी मृत्यु हो गयी। गोली मारने वाले व्यक्ति को पुलिस ने पकड लिया। उससे पूछा गया कि तुमने गोली चलाई? उसने कहा- चलाई, किंतु मेरा अभिप्राय मारने का नहीं था। मैं निशाना लगाना सीख रहा था, निशाना चूक गया और गोली लग गयी। चूँकि उसका अभिप्राय खराब नहीं था इसलिये उसे छोड दिया गया।
दूसरा-एक व्यक्ति निशाना लगा कर किसी की हत्या करना चाहता था। वह गोली मारता है, गोली लगती नहीं और गोली मारने वाले को पुलिस पकड लेती है। पुलिस पूछती है कि तुमने गोली मारी, तो वह जवाब देता है मारी तो है पर उसे लगी कहाँ? पुलिस उसे जेल में बन्द कर देती है। ऐसा क्यों? जीव हिंसा नहीं हुई इसके उपरांत भी उसे जेल भेज दिया गया और जिससे जीव हिंसा हो गयी थी, उसे छोड दिया। यह इसलिये कि वहाँ पर भावहिंसा को देखा जा रहा है। न्याय में सत्य और असत्य का विश्लेषण भावों के ऊपर आधारित है।
हमारी दृष्टि भी भावों की तरफ होनी चाहिये। अपने आप के शरीरादि को ही आत्मा मान लेने से कि ‘मैं शरीर हूँ या शरीर ही मैं हूँ, हिंसा प्रारम्भ हो जाती है। यह अज्ञान और शरीर के प्रति राग ही हिंसा का कारण बनता है। हम स्वयं जीना सीखें। स्वयं तब जिया जाता है जब सारी बाह्य प्रवृत्ति मिट जाती है। अप्रमत्त दशा आ जाती है। इस प्रकार जो स्वयं जीता है वह दूसरे को भी जीने में सहायक होता है। जिसके द्वारा मन-वचन-काय की चेष्टा नहीं हो रही है वह दूसरे के लिये किसी प्रकार की बाधा नहीं देता।
जो विस्फोट ऊपर से होता है वह उतना खतरनाक नहीं होता जितना गहराई में होने से होता है। आत्मा की गहराई में जो राग-प्रणाली या द्वेष-प्रणाली उद्भूत हो जाती है वह अन्दर से लेकर बाहर तक प्रभावित करती है। उसका फैलाव सारे जगत में हो जाता है। जैनदर्शन में एक उदाहरण भाव-हिंसा को लेकर आता है। समुद्र में जहाँ हजारों मछलियाँ रहती हैं उनमें रोहू मछली होती है। जब वह मुँह खोलकर सो जाती है तो उसके मुँह में अनेक छोटी-छोटी मछलियाँ आती जाती रहती है। जब कभी उसे भोजन की इच्छा होती है वह मुँह बन्द कर लेती है और भीतर अनेक मछलियाँ उसका भोजन बन जाती है।
इस दृष्य को देखकर एक छोटी मछली जिसे तन्दुल मत्स्य कहते हैं, जो आकार में तन्दुल अर्थात चावल के समान होती है वह सोंचती है कि यह रोहू मछली कितना पागल है, इसे इतना भी नहीं दिखता कि जब मुख में इतनी मछलियाँ आती रहती है तो मुख बन्द कर लेना चाहिये। इसके स्थान पर यदि मैं होता हो लगातार मुख खोलता और बन्द कर लेता। इस तरह सभी को खा लेता। देखिये स्थिति कितनी गम्भीर है। छोटे से मत्स्य की हिंसा की वृत्ति कितनी है, चरम सीमा तक। वह अनन्त जीवों को खाने की लिप्सा रखता है, वह खा एक भी नहीं पाता है क्योंकि उसकी उतनी शक्ति नहीं है लेकिन भावों के माध्यम से खा रहा है निरंतर।
बाहर से खाना भले ही नहीं देखता है लेकिन अभिप्राय कर लिया, संकल्प कर लिया, तो मन विकृत हो गया। यही हिंसा है। रोहू मछली जितनी आवश्यकता हो उतनी ही खाता है, शेष से कोई मतलब नहीं है, लेकिन तन्दुल मछली एक भी मछली को खा नहीं पाता, पर लिप्सा पूरी है। इसलिये वह सीधा नरक चला जाता है। सीधा सप्तम नरक। यह है भाव हिंसा का प्रभाव।
आप भी इसे समझें कि मात्र अपने जीवन को द्रव्य हिंसा से ही निवृत्त करना पर्याप्त नहीं है, यदि आप अपने में नहीं हैं अर्थात मन, वचन और आपकी काय की चेष्टायें अपने में नहीं है तो आपके द्वारा दूसरे को धक्का लगे बिना नहीं रह सकता। एक व्यक्ति कोई गलती करता है तो वह एकांत रूप से अपने आप ही नहीं करता उसमें दूसरे का भी हाथ रहता है। भावों का प्रभाव पडता है। दूसरे के धन को देखकर ईर्ष्या अथवा स्पर्धा करने में भी हिंसा का भाव उद्भूत होता है। जो राग द्वेष करता है वह स्वयं दुःखी होता है और दूसरों के भी दुःख का कारण बनता है। लेकिन जो वीतरागी है वह स्वयं सुखी होता है और दूसरों को भी सुखी बनने का कारण सिद्ध होता है।
आपका जीवन हिंसा से दूर हो और अहिंसामय बन जाये इसके लिये मेरा यही कहना है कि भाव-हिंसा से बचना चाहिये। मेरा कहना तभी सार्थक होगा जब आप स्वयं अहिंसा की ओर बढने के लिये उत्साहित हों, रुचि लें। किसी क्षेत्र में उन्नति तभी सम्भव है जब उसमें अभिरुचि जागृत हों। आपके जीवन पर आपका अधिकार है पर अधिकार होते हुए भी कुछ प्रेरणा बाहर से ली जा सकती है। बाहर से तो सभी अहिंसा की प्राप्ति के लिये आतुर दिखते हैं किंतु अन्दर से भी स्वीकृति होनी चाहिये। एक व्यक्ति जो अपने जीवन को सच्चाई मार्ग पर आरूढ कर लेता है तो वह सुखी बन ही जाता है, साथ ही दूसरे के लिये भी सुखी बनने में सहायक बन जाता है। आप चाहें तो यह आसानी से कर सकते हैं।
अहिंसा मात्र प्रचार की वस्तु नहीं है और लेन-देन की चीज भी नहीं है, वह तो अनुभव की वस्तु है। कस्तूरी का प्रचार-प्रसार करने की आवश्यकता नहीं होती, जो व्यक्ति चाहता है वह उसे सहज ही पहचान लेता है। महावीर भगवान ने सत्यता को स्वयं जाना और अपने भीतर प्रकट किया तभी वे भगवान बने। उन्होंने किसी को भी छोटा नहीं समझा, सभी को पूर्ण देखा और जाना और पूर्ण समझा। सन्देश दिया कि प्रत्येक आत्मा में भगवान हैं किंतु एकमात्र हिंसा के प्रतिफल स्वरूप स्वयं भगवान के समान हो कर भी हम भगवत्ता का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। जबतक राग-द्वेष रूप हिंसा का भाव विद्यमान रहेगा तबतक सच्चे सुख की प्राप्ति संभव नहीं है। अपने भावों मे अहिंसा के माध्यम से दूसरे का कल्याण हो भी सकता है और नहीं भी किंतु अपनी आत्मा का कल्याण अवश्य होता है। जो अहिंसक है, वह दूसरे को पीडा नहीं पहुँचाता है। यही दूसरे के कल्याण में उसका योगदान है। आचार्यों की वाणी है कि “आदहिदं कादव्वं, जदि सक्कइ परहिद व कादव्वं।आदहिद परहिदादो, आदहिदं सट्ठु कादव्वं”। आत्म हित सर्वप्रथम करना चाहिये। जितना बन सके उतना परहित भी करना चाहिये। लेकिन दोनों में अच्छा आत्म-हित ही है। जो आत्म हित में लगा है उसके द्वारा कभी दूसरे का अहित नहीं हो सकता।
इस प्रकार ‘स्व’ और ‘पर’ का कल्याण अहिंसा पर आधारित है। आध्यात्म का रहस्य इतना ही है कि अपने को जानो, अपने को पहचानो, अपनी सुरक्षा करो। अपने में सब कुछ समाया है। पहले विश्व को भूलो और अपने को पहचानो; जब आत्मा को जान जाओगे तो विश्व स्वयं सामने प्रकट हो जायेगा। अहिंसा-धर्म के माध्यम से स्व-पर का कल्याण तभी संभव है जब हम उसे आचरण में लायें। अहिंसा के पथ पर चलना ही आहिंसा-धर्म का सच्चा प्रचार-प्रसार है। आज इसी की आवश्यकता है।
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